Tuesday, October 7, 2008

savera

हर दिन... रातका इंतजार करती हूँ
जिस रत मैं मेरे बच्पनका
सुनहरा सवेरा देखसकू।
अब पन्ने बहोत आगे दौडराहे है...
वर्तमानमें जिनका
प्रयास अब शुरू है
हर रत सप्नेमेभी अँधेरा चाजाता hai...
सिर्फ़ आवाजे सुनाई देती है...
घबरायी हुई सांसे॥
कोई अनचाहा स्पर्श...
जैसे बेवक्त बारिश होरही हो।
आसुभी उस बरिश्मे खोराहे है
और किसीको समझ्ताभी नही।
उसको अपने छोटे हतोंसे रोकनेकी कोशिश करती हु
पर अंधेरेमे कुछभी दिखाई नही देता
चीखना चिल्लाना एक तरफ़
समाधान, आहे भरना दूसरी तरफ़।
फिर सबकुछ शांत
वर्तमानमे आती हूँ
तो सवेरा होचुका होता है
पसिनेकी बुन्द्मे आसू पिघल्जाते है
और बच्पनका सुनहरा सवेरा
रत पीजाती है
शायद उसी सप्नेने बच्पनको अंधेरेमे धकेल्दिया है...



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